एल्गोरिद्म के देवता: भूखे इंसानों पर बने ट्रिलियन-डॉलर साम्राज्य
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एल्गोरिद्म के देवता: भूखे इंसानों पर बने ट्रिलियन-डॉलर साम्राज्य
कभी
अर्थव्यवस्थाएं लोगों द्वारा
और लोगों के
लिए बनाई जाती
थीं। आप कुछ बनाते थे,
उसे बदलते थे,
और बदले में
कुछ पाते थे।
चाहे वो अनाज हो, कपड़ा,
धातु या मांस आपकी
मेहनत की अहमियत
साफ दिखती थी।
बार्टर सिस्टम भले
ही बुनियादी रहा
हो, लेकिन कम
से कम उसमें
इंसान को सिस्टम
से मिटाया नहीं
गया था।
अब
हम ऐसी अर्थव्यवस्था
बना रहे हैं जो लोगों
को पूरी तरह
से हटाने का
जश्न मना रही है।
कृत्रिम
बुद्धिमत्ता (AI) को मानव
प्रगति की अगली बड़ी छलांग
के रूप में बेचा जा
रहा है एक सोचने
वाली, खुद को सुधारने वाली मशीन
जो लगभग हर चीज़ में
इंसानों से बेहतर
काम कर सकती है। हमें
बताया जाता है कि ये
हमें "मुक्त करेगी",
"उत्पादकता बढ़ाएगी", "संभावनाएं खोलेगी"।
लेकिन हकीकत ये
है कि यह हमें बदल
रही है और इसका
फायदा एक बहुत छोटे, बेहद
अमीर तबके को दिया जा
रहा है।
भारत
को ही देख लीजिए दुनिया
की सबसे तेजी
से बढ़ती बड़ी
अर्थव्यवस्था के रूप
में पेश किया
जा रहा है, जिसकी नज़र
5 ट्रिलियन डॉलर की
जीडीपी पर है। कागज़ों पर तो यह एक
महाशक्ति बनता दिखता
है। असलियत? देश
में इतिहास की
सबसे ज्यादा बेरोजगारी।
2025 के मध्य तक आधिकारिक आंकड़े कहते
हैं कि बेरोजगारी
5.6% है लेकिन
ये सिर्फ एक
आंकड़ा है, हकीकत
नहीं। 70% से अधिक
अर्थशास्त्री मानते हैं
कि असली दर शायद दोगुनी
या तिगुनी है।
युवाओं की बेरोजगारी
भयावह है 83% बेरोजगार लोग 15 से
29 साल के बीच हैं। करोड़ों
शिक्षित युवा डिग्रियों
के साथ खाली
बैठे हैं। और
10 करोड़ और लोग
जिनमें
ज़्यादातर महिलाएं हैं ने तो
काम ढूंढना ही
छोड़ दिया है।
और
ये सिर्फ भारत
की बात नहीं
है। ये कोई एक देश
की असफलता नहीं
ये
एक वैश्विक ट्रेंड
है। एक ऐसा सिस्टम जो
नौकरियों से ज्यादा
डिग्रियां, गरिमा से
ज्यादा डेटा, और
अवसर से ज्यादा
ऑटोमेशन पैदा कर रहा है।
वही टेक कंपनियां
जो "सशक्तिकरण" का वादा
करती हैं, हर कदम पर
इंसानों को एल्गोरिद्म
से बदल रही हैं। वे
"कुशलता" का जश्न
मना रही हैं लेकिन
कीमत इंसानी जीवनयापन
है।
भारत
हो, अमेरिका, यूरोप
या अफ्रीका हम पूरी
दुनिया में मध्यम
वर्ग को आंखों
के सामने मिटते
हुए देख रहे हैं। AI नौकरियां इतनी
तेजी से खत्म कर रहा
है कि नीति-निर्माण उसकी रफ्तार
नहीं पकड़ पा रहा। विकासशील
देशों में जहां
लाखों लोग आज भी हाथों
के काम और अनौपचारिक रोज़गार पर
निर्भर हैं, वहां
ऑटोमेशन सिर्फ बाधा
नहीं तबाही
है। और विकसित
देशों में, यह लोगों को
एक अस्थायी गिग
इकॉनमी में धकेल
रहा है असुरक्षित, अस्थिर, और
इस्तेमाल के बाद
फेंक देने लायक।
और
सबसे बड़ा झटका?
यह सिर्फ आर्थिक
आत्महत्या नहीं यह
एक विरोधाभास है।
क्योंकि बिना उपभोक्ताओं
के अर्थव्यवस्था चलती
नहीं। जिनके पास
नौकरी नहीं, वो
खर्च नहीं करते।
और अगर AI निर्माता
और ग्राहक दोनों को
ही हटा दे, तो हम
ये सारा उत्पादन
किसके लिए कर रहे हैं?
भूतों से भरे बाज़ार में
आप कुछ बेच नहीं सकते।
हमें
कहा जा रहा है “नई
स्किल्स सीखो”, “अनुकूल
बनो”, “पिवट करो”। लेकिन
कहां जाएं? उस
जॉब मार्केट में
जहां सेकंड में
आउटपुट को इंसानी
मायने से ज़्यादा
तवज्जो दी जाती है? जहां
प्रतिस्पर्धा इंटरनेट पर प्रशिक्षित
न्यूरल नेटवर्क से
हो? ये पूरा खेल ही
पक्षपातपूर्ण है। AI सिर्फ
काम नहीं छीन
रहा ये
इंसानी सहभागिता की
अहमियत को भी मिटा रहा
है।
इसी
दौरान, टॉप 1% लगातार
जीत रहा है। भारत में
अब उनके पास
देश की 40% से
अधिक संपत्ति है।
अमेरिका में 35% से
ज्यादा। कुछ ट्रिलियनेयर्स
पूरी सप्लाई चेन
को ऑटोमेट करने
की रेस में हैं, जबकि
आम जनता किराया
देने के लिए जूझ रही
है। हम अवसर नहीं बना
रहे हम
सत्ता को केंद्रीकृत
कर रहे हैं।
ये अब सिर्फ
CEO नहीं हैं ये
डिजिटल सम्राट हैं,
एल्गोरिद्मिक साम्राज्यों के राजा,
नीति से अछूते,
विरोध से अप्रभावित।
ये
नवाचार नहीं है।
ये इंसानों का
सामूहिक मिटाया जाना
है। एक ऐसी दुनिया जहां
कला, लेखन, कोडिंग
और श्रम सब मशीनों को
सौंप दिया जाए
वो
समाज नहीं, सिर्फ
एक सिम्युलेशन है।
और वो भी सिर्फ उस
आर्थिक अभिजात्य वर्ग
के लिए जिसे
बाक़ी दुनिया से
अब कोई फर्क
नहीं पड़ता।
AI को
एक ऐसा टूल होना चाहिए
था जो पीड़ा
कम करे, श्रम
घटाए, और रचनात्मकता
बढ़ाए। लेकिन लालच
के हाथों में
यह एक ऐसा औज़ार बन
गया है जो अर्थव्यवस्था से इंसानियत
की आत्मा को
काट रहा है। अगर हम
इसे बिना रोकटोक
के आगे बढ़ने
देते हैं, तो हम किसी
डिजिटल यूटोपिया की
ओर नहीं, एक
तेज़ी से आ रहे पतन
की ओर बढ़ रहे हैं।
क्योंकि कोई भी सभ्यता तब
तक नहीं टिकती
जब वह अपने ही लोगों
को बेकार मान
ले।
तो
बनाइए अपने ट्रिलियन-डॉलर के
AI साम्राज्य। मनाइए अपने
ग्रोथ मेट्रिक्स और
जनरेटिव ब्रेकथ्रूज़ का
उत्सव। लेकिन याद
रखिए: अगर कोई कमा नहीं
सकता, तो कोई खर्च भी
नहीं कर पाएगा।
अगर कोई हिस्सा
नहीं ले सकता,
तो कोई परवाह
भी नहीं करेगा।
और अगर इंसान
आर्थिक रूप से अप्रासंगिक हो जाएं,
तो फिर आगे ऑटोमेट करने
के लिए कुछ भी नहीं
बचेगा।
नोट:
इस लेख को अपने सांसद,
विधायक, या किसी भी नीति-निर्माता के साथ ज़रूर साझा
करें जो आपके भविष्य के
फैसले ले रहा है।
Good 👍 analysis
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