जंगल राज 2.0: लोकतंत्र का अंदर से विनाश
जंगल राज 2.0: लोकतंत्र का अंदर से विनाश
"जंगल राज"
शब्द सबसे पहले
1990 के दशक में लालू प्रसाद
यादव के शासनकाल
में बिहार के
लिए इस्तेमाल हुआ
था एक ऐसा दौर जहाँ
अपराध चरम पर था, संस्थाएँ
ढह रही थीं और संविधान
को अक्सर राजनीतिक
सहूलियत के लिए नजरअंदाज किया जाता
था। लेकिन आज
भारत जिस दौर से गुजर
रहा है, वह किसी अव्यवस्थित
अराजकता का नतीजा
नहीं है। यह उससे कहीं
ज़्यादा खतरनाक है:
यह लोकतंत्र पर
एक सुनियोजित हमला
है, जो कानून,
राष्ट्रवाद और विकास
की आड़ में चलाया जा
रहा है। इसे जंगल राज
2.0 कहना ही सही
होगा एक वैधानिक
तानाशाही, जिसे चुनावी
वैधता की चादर से ढका
गया है।
2014 से, भारत
के लोकतांत्रिक संस्थानों
को सिर्फ कमजोर
नहीं किया गया
है उन्हें पूरी
तरह अपने नियंत्रण
में ले लिया गया है।
संविधान को बार-बार दरकिनार
किया जाता है।
कानूनों का इस्तेमाल
विरोध की आवाज़ों
को कुचलने के
लिए किया जाता
है। मुसलमानों सहित
अल्पसंख्यकों पर हिंसा
और नफरत खुलेआम
फैल रही है, और सरकार
या तो मूकदर्शक
बनी हुई है या फिर
पर्दे के पीछे से प्रोत्साहित
कर रही है। बिहार में
एक आरजेडी नेता
की हत्या, जिसमें
भाजपा समर्थकों का
हाथ बताया जा
रहा है, यह दिखाने के
लिए काफी है कि अब
कानून किसी के पक्ष में
लागू होता है तो किसी
के खिलाफ।
मोदी
शासन में भ्रष्टाचार
और सत्ता का
दुरुपयोग एक संगठित
व्यवस्था बन चुका
है। चुनाव आयोग
विपक्षी दलों के आरोपों पर
चुप्पी साधे रहता
है। वोटर लिस्ट
में गड़बड़ी, फर्जी
मतदान और सरकारी
टेंडरों का अनियमित
वितरण आम बात हो चुकी
है। कानूनों को
इस तरह से बदला गया
है कि कॉरपोरेट
भ्रष्टाचार भी "कानूनी" दिखाई
देने लगे।
यह
सिर्फ कुप्रशासन नहीं
है, यह एक रणनीतिक हमला है।
राज्यपाल और उपराज्यपाल,
जो केंद्र सरकार
द्वारा नियुक्त होते
हैं, उन्हें गैर-भाजपा सरकारों
को अस्थिर करने
के लिए इस्तेमाल
किया जाता है।
राज्यों को फंड रोका जाता
है, उनके कानूनों
को मंज़ूरी नहीं
मिलती, और कानून-व्यवस्था में केंद्र
का हस्तक्षेप अब
एक सामान्य बात
बन चुकी है।
यह भारत के संघीय ढांचे
पर सीधा हमला
है।
न्यायपालिका
भी इस गिरावट
से अछूती नहीं
है। भाजपा नेताओं
के खिलाफ केस
गायब हो जाते हैं, या
खारिज कर दिए जाते हैं।
जो जज स्वतंत्र
सोच रखते हैं,
उनका ट्रांसफर कर
दिया जाता है या उन्हें
हाशिए पर डाल दिया जाता
है। न्यायपालिका में
भ्रष्टाचार के आरोप
आम हो चुके हैं कई
मामलों में अरबों
रुपये की रिश्वत
की खबरें भी
सामने आई हैं। मीडिया, जो कभी सत्ता पर
सवाल उठाने वाला
था, अब सरकार
का प्रचार यंत्र
बन चुका है।
असली खबरें दबा
दी जाती हैं,
और जनता को केवल वह
दिखाया जाता है जो सरकार
चाहती है।
हम
सबको बिलकिस बानो
का मामला याद
है गुजरात दंगों
में बलात्कार और
उसकी तीन साल की बेटी
की हत्या। जिन
लोगों ने यह जघन्य अपराध
किया, उन्हें समय
से पहले रिहा
कर, फूलों से
स्वागत किया गया।
यह तब तक चलता रहा
जब तक सुप्रीम
कोर्ट ने दखल नहीं दिया।
जब एक राज्य
अपराधियों को सम्मान
देता है और पीड़ितों को चुप कराता है,
तो वहां न्याय
की कोई जगह नहीं बचती।
यह
जंगल राज का नया संस्करण
है जहाँ सत्ता
बिखरी नहीं है,
बल्कि केंद्रीकृत है।
एक व्यक्ति कानून
बनाता है, उसकी
पार्टी उन्हें लागू
करती है, और उसके समर्थक
सड़कों पर हिंसा
करते हैं बिना
किसी डर के, बिना किसी
सज़ा के।
भारत
अब किसी संकट
के किनारे पर
नहीं है, वह उसके बीचोंबीच
है। अगर जनता
ने समय रहते
इस "कानूनी अराजकता"
को पहचान कर
इसके खिलाफ खड़ा
होना शुरू नहीं
किया, तो वे न सिर्फ
अपने अधिकार खो
देंगे, बल्कि अपने
भविष्य, अपनी आज़ादी
और अपना देश
भी गँवा देंगे।
अब
और भ्रम की कोई गुंजाइश
नहीं है। यह लोकतंत्र नहीं है।
यह तानाशाही है
चुनाव के पर्दे
के पीछे छिपी
हुई। यही है जंगल राज
2.0 और इसके खिलाफ
अब खड़ा होना
ज़रूरी है, डर के साथ
नहीं, बल्कि हिम्मत,
एकता और सच के साथ।
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