272 लोगों का पत्र जिसने ताकत का भ्रम तोड़ दिया
272 लोगों का पत्र जिसने ताकत का भ्रम तोड़ दिया
भारत
दुनिया की सबसे तेज दिमागों
वाली प्रतिभाओं का
देश है, फिर भी हमें
यह मानने को
कहा जाता है कि हमारा
देश ऐसे व्यक्ति
के हाथों में
सुरक्षित है जिसकी
प्रशासन और शासन की समझ
उसकी छवि से कहीं कम
दिखाई देती है।
आलोचकों की नजर में प्रधानमंत्री
नेता नहीं, बल्कि
उन ताकतवर समूहों
की आवाज हैं
जिन्होंने उनकी राजनीति
की पटकथा तैयार
की। दूर से उनका प्रभाव
बड़ा लगता है,
लेकिन पास से देखने पर
यह बनाया हुआ,
सजाया हुआ और बाहरी शक्तियों
के सहारे खड़ा
दिखता है।
इस
भ्रम को सबसे ज्यादा उजागर
किया 272 लोगों के उस
पत्र ने, जिन्हें
सरकार में उच्च
पदों पर रहे अनुभवी व्यक्तियों
के रूप में पेश किया
गया था। यह पत्र बिहार
में मचे तूफान
के बाद गणेश
कुमार के समर्थन
में जारी किया
गया, और इसे एक गंभीर,
प्रतिष्ठित बयान के
रूप में दिखाया
गया। लेकिन आम
जनता के लिए यह पत्र
शासन का नहीं,
बल्कि राजनीतिक नाटक
का हिस्सा लगा।
सच
यह है कि यह पूरा
प्रयास एक तयशुदा
चाल जैसा लगा।
आलोचकों का मानना
है कि यह पत्र भाजपा
की राजनीतिक मशीनरी
द्वारा तेजी से तैयार किया
गया ढाल था, ताकि बिहार
में उठे सवालों
से गणेश कुमार
को बचाया जा
सके और उस मॉडल की
रक्षा की जा सके जिसे
वह देश के अन्य भागों
में भी लागू करने की
कोशिश कर रहे थे। 272 हस्ताक्षर अनुभव
का प्रतीक दिखाने
का प्रयास थे,
लेकिन असल में यह विश्वसनीयता
गढ़ने की कोशिश
लगी।
और
यही बात सबसे
ज्यादा चुभती है।
इस
रणनीति को गढ़ने
वालों को लगा कि भारतीय
सवाल नहीं पूछेंगे।
वे सोचते हैं
कि अगर 272 लोग
हस्ताक्षर कर दें,
तो जनता सोचना
बंद कर देगी।
कि जिस देश ने दुनिया
को बड़े वैज्ञानिक,
विचारक और नवोन्मेषक
दिए, वह एक तयशुदा बयान
को सच मान लेगा क्योंकि
उसे कई बार दोहराया गया है।
लेकिन
बिहार ने माहौल
बदल दिया। वहां
जो हुआ और उसके बाद
जो हड़बड़ाहट दिखी,
उसने बहुत कुछ
सामने ला दिया।
आलोचकों का कहना है कि
वही कॉर्पोरेट शक्तियां
जिन्होंने प्रधानमंत्री के उदय में बड़ी
भूमिका निभाई, आज
नीतियों और परियोजनाओं
को अपने हितों
के हिसाब से
मोड़ रही हैं,
ताकि सरकारी संसाधन
एक सीमित निजी
नेटवर्क के भीतर घूमते रहें।
प्रधानमंत्री बोलते हैं,
लेकिन आवाज कहीं
और से आती है।
इसके
बावजूद सत्ता पक्ष
इस तरह व्यवहार
करता है जैसे जनता हमेशा
चुप, बंटी हुई
या व्यस्त रहेगी।
जैसे भावनात्मक राजनीति
जवाबदेही की मांग
को हमेशा दबा
देगी।
लेकिन
भारत का इतिहास
कुछ और कहता है। जब
जनता जागती है,
तो पूरी ताकत
से जागती है।
बांग्लादेश
ने हाल ही में दिखा
दिया कि जनता भ्रष्टाचार के खिलाफ
कितना निर्णायक कदम
उठा सकती है।
भारत, जो साहस और नैतिकता
का दावा करता
है, आख़िर कब
तक चुप रहकर
इसे शक्ति समझता
रहेगा? हर धैर्य
की एक सीमा होती है।
गांधी
यह बात समझते
थे। उन्होंने सिर्फ
भाषण देकर आजादी
नहीं दिलाई। उन्होंने
आम भारतीयों, खासकर
गरीबों, को जगाया
और सत्ता में
बैठे लोगों को
मजबूर किया कि वे पक्ष
चुनें। जब जनता उठती है,
तो अभिजात वर्ग
को भी चलना पड़ता है।
आज
की विपक्ष को
यही सीख अपनानी
होगी। राहुल गांधी
और अन्य नेताओं
को व्यक्तिगत दावेदारी
छोड़कर एक मंच, एक घोषणा
पत्र और एक आंदोलन पर
एकजुट होना होगा।
यह सत्ता पाने
के लिए नहीं,
बल्कि एक ऐसे लोकतंत्र को संतुलित
करने के लिए जरूरी है
जो आज असमान
दबावों के नीचे झुक रहा
है।
और
जनता को भी आगे आना
होगा। शांतिपूर्ण, संगठित
जनदबाव लोकतंत्र की
सबसे बड़ी ताकत
है। हिंसा सरकारों
को बहाना देती
है, शांतिपूर्ण लामबंदी
बहाने छीन लेती
है।
सत्ता
पक्ष के भीतर भी असंतोष
है। सब लोग ऐसे ढांचे
का हिस्सा नहीं
रहना चाहते जिसमें
कुछ आर्थिक खिलाड़ी
असली फैसले लें
और चुने हुए
प्रतिनिधियों की भूमिका
केवल दिखावे की
हो।
272 लोगों का
पत्र ताकत दिखाने
के लिए जारी
किया गया था। इसने
कमजोरी दिखा दी।
इसने दिखा दिया
कि स्थिरता के
भ्रम को बचाए रखने के
लिए कितनी मेहनत
करनी पड़ रही है।
भारत
अब उस मोड़ पर है
जहां पटकथा साफ
दिखने लगी है, मंच कमजोर
पड़ रहा है और कलाकार
बार बार दोहराए
संवादों में फंसे
हुए हैं। सवाल
यह है कि जनता ऐसे
शासन मॉडल को कब तक
स्वीकार करेगी, जिसे
असल में वे लोग चला
रहे हैं जिन्हें
किसी ने चुना ही नहीं।
क्योंकि
असली खतरा सिर्फ
एक प्रतीक बन
चुके नेता से नहीं है।
असली खतरा उस जनता
से है जो भ्रम को
पहचानने के बाद भी उठने
का फैसला नहीं
करती।
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